रविवार, 7 नवंबर 2010

इन्साफ की देवी का नया अवतार राखी सावंत उर्फ़ बुलशिट


जब जज की कुर्सी पर बैठा इन्साफ का देवता धद्र, भोंडी, मेकुप से सने चहरे से निकलते शब्दों के असामाजिक तीर आपके घर के डराएंग रूम में, टीवी शो के जरिये छोड़ता है तो कहलाता है राखी का इन्साफ। यंहा इन्साफ की मसीहा, फरियादी और इल्जान लगाने वाले सब एक ही हमाम में नहाने वाले नंगे और अधनंगे हैं। मेरी शिकायत राखी से नहीं है न मेरी चिंता का कारण वंहा आने वाले घटिया मेहमानों की लिस्ट है मेरी नज़र तो सच और इन्साफ के नाम पर परोसे जा रहे घटिया स्तर के मनोरंजन पर है। एनडी टीवी एमजिन पर दिखाए जाने वाले मनोरंज की सूची पर एक आँख दोडाते हैं, तो पता चलता है,ये वही राखी सावंत है जिसका कलयुगी स्वन्वर सिल्वर स्क्रीन पर रचा था। इस शो ने मनोरंजन की ऐसी लहर चली कि एन डी टीवी सस्ते स्टार और सस्ते स्तर मनोरंजन के दिखने वाले चेंनलो की लिस्ट में अव्वल था । स्वन्वर खत्म हुआ, मुझे लगा के इसके बाद भारतीय परम्पराओ का और ख्याल रखते हुए आप राखी की सुहाग रात दिखाओगे और उसके बाद राखी की डिलीवरी ।
दरअसल टीआर पी की आँख चुराने वाली लड़ाई का नतीजा ही है कि कल तक रामायण और फैमिली शो बनाने वाला एंडी टीवी आज मनोरंजन की मर्यादा का चिर हरण करने से बाज़ नहीं आ रहा।
राखी का इन्साफ, राखी का फैसला, सच की जीत, अबला को सबला , वूमन एम्पावरमेंट, और न जाने क्या अला फला शब्दों के जाल से बुना गया ये मकड़ी का वो जाल है जन्हा फंसने और हंसने वाला एक आम दर्शक ही है।
शायद एक मनोरंजन चैनल होने की सारी जिमादारी को आप भूल गए हैं। मनोरंजन और इन्साफ के नाम पर लम्बी चोडी गालियों से भरी बीप ही अपने परिवार (दर्शक) को परोस रहे हैं।
कितना अच्छा लगता था किरण बेदी की इन्साफ की वो बैठक (स्टार प्लस पर आने वाला शो ) जन्हा लोगो के टूटे घर जोड़े जाते थे, इंसान में सुधार की गुंजाईश की हर सीमा तक खोज की जाती थी और न जाने कितनी अबलाओ को सबला बनाने की पुरजोर कोशिश की थी उन्होंने।
मेरा सवाल है की क्या हम (दर्शक ) हकीकत में मनोरंजन के अपने स्वभाव को बदलना चाहते हैं ? हम वही देखना चाहते हैं जो हमें दिखया जा रहा है ? या फिर ये टीवी चेनल चलाने वाले धन्ना सेठो की साजिश के तहत हमें जबरन तमाशबीन, सस्ते मनोरंजन के नशे का आदि बनाया जा रहा है क्योंकि उनके लिए तो ये सब बिज़नेस है

रविवार, 22 अगस्त 2010

Its good to be optimist in life....


Its easy to get defeate someone but difficult to chess yourself and get victory over it, because adversity still appears on the path of sucsess.
Sometime even small problems seems massive.
I personly feel and experienced that the mental streangth and optimist attitude for the life always help you to come out.
Just faith and practice and constructed strong action will lead us .
determination for your goal play substantive role even in the crucial stiuations.
To achieve the object is very simple dont forget your priorities and dont breach your promises.
Its my personal experience teaches me the consistency is the key of blocked way.
Let the problems pull down and face the challenges , certainly you see positive face of life...........................

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

पार्क भी चुपके से कुछ कहता है ......


दिल्ली में कुछ पार्क ही तो ऐसी जगह लगी जन्हा धर्मनिरपेक्षता का जीता जगता सा मंज़र नज़र आता है मुझे, जन्हा लोकतंत्र सचमुच झलकता सा दिखा, एकुँलिटी का असली अहसास मुझे सुबह पार्क में जाकर ही होता है ।
छोटे बड़े होने का अहसास तक मानव को शायद नहीं होता होगा।
हिन्दू -मुस्लिम एक ज़मीन पर दोड़ते हैं तो सिख , पारसी , इसाई और अलाफ्ला, तमाम धर्मो के नुमानिंदे बिना भेदभाव के इकठे बेठे , हँसते , योग करते , मोर्निंग और एवेनिंग वाल्क में डूबे, तैरते, दिखते हैं ।

में सोचता फिरता रहा क्या उस वक़्त पार्क नहीं होते थे क्या? जब हरिवंश जी ने "मधुशाला" को सेकुलरिस्म का जीता जगता उदहारण कहा था।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

जात का घाव


घाव इतना गहरा है कि हजारो साल बीत गए मगर हरिजन सिर्फ दलित ही हो सका है।

संविधान ने कोशिश कि पिछडो को आगे लाया जाये, कुछ नेतिक बदलाव् लाने कि कोशिश तमाम samaj सुधारको ने किये, देश ने गौरव के साठ सालों का जश्न मनाया है और हर इंसान, इंसानियत को बड़ा और जात की लड़ाई को छोटा समझने लगा है ,मुझे ऐसा ही लगा था ।

क्या सचमुच ऐसा ही है ?

मेरा जन्हा क्या उतना ही रोशन है जितना किसी शिवालय के पुजारी का ?

हम आधुनिक दिल्ली में रहते हैं छोटे -बड़े ऊँचे- निचे होने का एहसास शायद यंहा दिल में छिपी मोटी दीवारों के पीछे दिखाई भी नहीं देता है मानो हर इंसान में एक विलेन ने हीरो का रूप धर सामजिक मंच पर महान कैरेक्टर को रचने का बीड़ा सा उठा लिया हो लेकिन हकीकत की जमीन पर उगे जात के घाव को मोका मिलते hi ऐसे लोग सबसे पहले कुरेदते हैं ।
जो लोग जात ki दीवार को मानसिक पिछडापन मानाते और हुंकारते फिरते हैं असल में वो लोग स्वर्ण उदारीकरण का महज स्वांग रचाए बेठे हैं और मोका मिलते हर उस एक का gala दबाने के लिए तयार हैं जो जरा भी ऊँची जात की बराबरी करने या समानता का सपना देखने की भूल भी करता है।

असलियत में हम सभी दिखावा करते हैं की घ्रणित मानसिकता से बहार आ गए हैं मगर अंदर छिपी अजीब सी घिनोनी विचारधारा को दबा के रखते हैं ।

ऊँची जात की लड़की का लगन जात के पायदान के निचले हिस्से में रहने वाले दलित से आज भी नहीं होता क्योंकि जात की लात बीच में फंस जाती है । मुख्धारा से जोड़ने के तमाम यत्न के दावे ठोकती सरकार क्या किसी लाचार की आबरू जो को सवर्णों के हाथो से तार- तार होती आ रही है बचा पाई है ?
ये लड़ाई है अपने अधिकारों की , अपने सम्मान की , बराबरी का दर्जा पाने की , हक की , हजारो सालो से आत्मा में चुभते आ रहे शूलों को उखाड़ फैंकने की ।

नहीं जानते सम्मान पाने के लिए और कितना अपमान सहना पड़ेगा मगर पूरी वेवस्था पर सवालिया निशाँ लग गया है जवाब मिलना बाकी है ।



रविवार, 31 जनवरी 2010

जिंदा गए थे लोटे चार कंधो पर........


ये अचानक है या सोची समझी साजिश का परिचय मुझे समझ में नहीं आता। कल तक अपनों (मुंबई राज का आतंक ) की बदसलूकी से नाराज थे और आज विदेशियों की।

रंजोध सिंह, नितिन गर्ग जेसे कई भारतीय स्टुडेंट जो लगातार औस्त्रिलियाई बर्बरता का शिकार हुए हमे क्या सन्देश देते हैं ?

कसूर उस हिंसा का है या जिसे हम जेसे इंडियन स्टुडेंट विदेश में झेल रहे हैं या कसूरवार हिंसा के पीछे छिपी वो परक्रिया है जिसे हम देख नहीं पा रहे हैं।

ज्यादा जिम्मेदार कौन हैं वो ऑस्ट्रलियन जो वैश्विक मंदी के चलते रोजाना अपनी जॉब जाने के डरसे बौखलाए हुए मारकाट पर उतर चुके हैं या अपनी मौत के कारण हम खुद ही हैं?


ज्यादातर भारतीय छात्र औस्ट्रलियां , अमेरिका , ब्रिटेन जाते तो पढाई करने के बहाने से हैं मगर ग्रीन कार्ड बनाने के लालच में पढाई chod वे सस्तइ मजदूरी में भी वो सब काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं jiske की लिए वंहा के मूल नागरिक ज्यादा या एक स्तर की सलेरी लेते हैं। ये कोई नई बात नहीं है कुछ वेसा ही जेसा की हम नेपाल से भारत आये उन तमाम नेपालियों को गाली देते हैं जो भारतियों की तुलना में कम मजदूरी में सारे काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं जिन कामो के लिए भारतीय मजदूर ज्यादा मजदूरी की उम्मीद करता है।

दूसरा कारण भारत की लगातार बढती आबादी भी है क्योंकि हमारे पास जितने कमाऊ हाथ हैं उतने काम नहीं, मजबूरन विदेश का रूख कर जल्दी अमीर बन्ने का ख्वाब विदेशी बदसलूकी का एक कारण है ।


भारतीय शिक्षा मंत्रालय हो या विदेश मंत्रालय महज नसीहतों की जमा पूँजी के कुछ और नहीं लुटाता है उनसे कुछ मदद पाने की उम्मीद तो अब बैमानी लगती है।


ये फैसला हमें खुद करना होगा की हम अगर पढाई के लिए कंही जाये तो शिक्षा पाकर स्वदेश लौटे और यंहा आकर देश के निर्माण में भागिदार बने, रोजगार की समस्या है तो हम व्यक्तिगत स्तर पर रोजगार सर्जन कर कुछ बेरोजगार हाथों को काम दें या देश की सम्प्रुभुता और अपने मान सम्मान को विदेशी हाथो में तार तार करके महज तमाशबीन बन खड़े रहे । फैसला आपका है जी ।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

चैक दे इंडिया- हॉकी मांगे इन्साफ


हॉकी का हाल बेहाल , है मेरा ये सवाल है ? कहाँ थे हॉकी का गेम बजाने वाले वो तमाम धुरंदर जो राष्ट्रीय खेल की अस्मिता पर उठते तमाम घातक सवालों से लापरवाह कुम्भकरण की नींद सोते रहे थे?

हॉकी खिलाडियों को nahi milte मेहनताने के बारे में पहले से नहीं जानते थे? और अगर अवगत थे तो आखिर किस बात का इन्तजार कर रहे थे? खिलाडियों के विद्रोह का या हॉकी इंडिया, खेल मंत्री एमएसगिल या मीडिया में तमाशे का इन्तजार था।


ये सच है की सहारा इंडिया के साथ हॉकी का आर्थिक अनुबंध हॉकी खिलाड़ियों और हॉकी प्रबंध के खर्च को उठाने में अक्षम है जो कि महज ३ करोर का है । आज हालत ये हो गए कि पिछले दिनों अर्जेंटीना में खेले गए मैच का पैसा तक खिलाड़ियों को नहीं मिला थाहॉकी खिलाड़ी को एक पूरी सीरीस खेलने का महज २५००० दिया जाता है वंही दूसरी ओर देश का धर्म बन चुके क्रिकेट में खिलाडी को सिर्फ एक मैच खेलने का १५०००० और टेस्ट मैच का २५०००० दिया जाता ही।

आखिर हॉकी खिलाड़ी अपनी बदहाली को कबतक छिपाते और गुस्से का ज्वारभाटा फूटना ही था सो फूटा ।


सवाल एक और है भारत में जिस चीज़ के साथ "राष्ट्रीय" शब्द जुड़ा है उस चीज़ का बेड़ा गरक आखिर क्यों हो गया है? जेसे राष्ट्रीय पशु बाघ की घटी संख्या हो या राष्ट्रीय गीत पर हालही में उठा विवाद, राष्ट्रीय पक्षीमौर की खस्ता हालत हो या राष्ट्रीय खेल हॉकी की फटीचर हालत पर उठा ये विवाद।

क्या इसकी एक वजह सरकारी लापरवाही है या प्रशानिक भ्रष्टाचारी का रिजल्ट है? ये अपने आप ने बहस का मुद्दा है लेकिन इतना तो साफ़ हे की सरकार की आँख तब तक नहीं खुलती जबतक कोई बड़ा धमाका नहीं होता।

इसलिए ये कहना गलत नहीं होगा की हॉकी खिलाडियों का अपनी मेहनत के लिए विद्रोह बिलकुल सही था।


आज media me आई खबर के अनुसार भारत में ओलंपिक प्रमुख सुरेश कलमाड़ी ने खिलाड़ियों को मुज्बानी आश्वाशन की जमापूंजी दी ही और एक बार फिर खिलाडिओं को जुबानी आश्वाशन का लोलिपौप देकर फुसला दिया गया हे।

ऐसे में खिलाडियों का पूरा अभियान निरर्थक सा साबित लगने लगा हे।

अगर सरकार खिलाड़ियों के लिए कुछ नहीं कर सकती को निजी उद्योगपतियों और धन्नासेठो को खिलाड़ियों की मदद के लिए आगे आना चाहिये ।



शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

गड़े मुर्दे उखाड़ना कितना सही है?


हम तो टीआरपी के लिए कुछ भी करेगा जिन्दों को मुर्दा और मुर्दों को कब्र से उखाड़ खबरों के बाज़ार में बेचेगा कौन साला मेरा कुछ बिगाड़ सकता है।

कुछ इसी अंदाज़ में आज देश का मीडिया रुचिका गिरिहोत्रा की बोली लगा रहा है। आपको याद होगा कि आरुशी हत्याकांड हो या जेसिकालाल कि हत्या ने मीडिया का बाज़ार कितना कितने दिनों तक रोशन किया था , मतलब यह है की रुचिका हत्याकांड हाईप्रोफाइल केसों की चेनमें महज एक नई कड़ी है इससे ज्यादा कुछ नहीं। अब लगातार कई हफ्तों के लिए मीडिया की भूक शांत हो जाएगी और उसके बाद फिर से किसी नई रुचिका और आरुशी की तलाश शुरू होगी ...


प्रशन ये भी उठता है की क्या सचमुच मीडिया लोकतंत्र में घटने वाली सभी छोटी बड़ी घटनायों के लिए उतनी दर्यादिल हो गई है ?

शायद नहीं क्योंकि देश में रोज़ कई मासूमो के साथ बलात्कार भी होते हैं और महिलयों की हत्या भी लेकिन मीडिया की चमत्कारी नज़र में वो आ ही नहीं पाती या मीडिया उन्हें खबर बनाना ही नहीं चाहती है ऐसी खबरे भला मीडिया के टीआरपी के पैमाने पर खरी नहीं उतरती होंगी शायद ।


रुचिका को मरने के बाद इन्साफ मिले इसमें कोई बुरे नहीं है मगर उन हज़ारो रुचिकाओं का क्या होगा जो अभी जिन्दा हैं और अपने लिए इन्साफ की आस लगाये वक़्त के साथ बूढी होती जा रही है ?


शायद ये मीडिया का दोष है साथ ही हमारी लापरवाही का नतीजा भी की हम मीडिया की दिखाई हर तस्वीर को सच मानते हैं और हर छापी खबर को भगवान् की वाणी ।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

शिक्षा का भूत और कितनो को निगलेगा


जिस शिक्षा को पाने की चाहत उसे थी आज वाही पढाई उसकी मौत का कारण बनी गई ।

बारवी कक्षा में पढने वाली हिमांशी का शव उसके घर से बरामद किया गया , उसने घर के पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली । हिमांशी दिलही के पुष्प विहार इलाके के सैक्टर तीन की छात्रा थी। मृतका के परिवार के मुताबिक हिमांशी की उम्र सत्रह साल थी। छमाही परीक्षा में अंक कम आने के कारण पिछले २ महीनो से छात्रा को स्कूल से निकालने की धमकियाँ मिल रही थी। हिमांशी के पिता की अचानक हुई मौत के कारण वह सदमे थी और उबरने में उसे वक़्त लग रहा था ऊपर से ऊपर से क्लास टीचर का हर छोटी बात पर उसे प्रताड़ित करना साथ ही परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए स्कूल का दबाव वो सहन न कर सकी पुलिस ने मामला पारिवारिक कलह का बनाकर लीपापोती करने की पूरी कोशिश शुरू कर दी है ।

वर्ष २०१० का आगाज़ शायद विद्यार्थियों के लिए मौत के पैगाम लेकर आगे बढ़ रहा है। गौरतलब है मुंबई में सोमवार को कथित तौर पर तीन छात्रों ने खुदकुशी कर ली थी । पश्चिमोत्तर मुंबई के चैतन्यनगर इलाके में 20 वर्षीय एक छात्रा का शव उसके घर से बरामद हुई । पुलिस के अनुसार नवी मुंबई के डीवाई पाटिल महाविद्यालय की मेडिकल की यह छात्रा दो विषयों में उत्तीर्ण नहीं हो सकी थी। दूसरी घटना दादर पश्चिम इलाके की है। वहां के शारदाश्रम हाईस्कूल के एक अधिकारी ने बताया कि सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र सुशांत एकनाथ पाटिल का शव स्कूल के बाथरूम में रस्सी से लटका पाया गया। एक अन्य घटना में डोंबीवली इलाके में भी 11 वर्षीया लड़की ने कथित तौर पर इस वजह से खुदकुशी कर ली।

लगातार होती ऐसी घटनाये मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर प्रशन चीन लगाती है।

गलती शिक्षा व्यवस्था में हो या अभिभावकों कि मगर हकीकत कि जमीन पर जिन्दगी बनाने कि आंधी में कई मासूम कली खिलने से पहले ही मुरझा जाती है ।
एक सवाल जो बार बार मेरे दिल में दोड़ता है ये केसा समाज है जन्हा हम बचपन से ही गुलामी कि को मैन्जे करने का तरीका सीखते हैं तनाव को सँभालने का तरीका सिखाया जाता हे मगर क्यों हम अपने बच्चो को जीवन में मानसिक आज़ादी कि बाते नहीं पढ़ाते हैं ?