सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

जात का घाव


घाव इतना गहरा है कि हजारो साल बीत गए मगर हरिजन सिर्फ दलित ही हो सका है।

संविधान ने कोशिश कि पिछडो को आगे लाया जाये, कुछ नेतिक बदलाव् लाने कि कोशिश तमाम samaj सुधारको ने किये, देश ने गौरव के साठ सालों का जश्न मनाया है और हर इंसान, इंसानियत को बड़ा और जात की लड़ाई को छोटा समझने लगा है ,मुझे ऐसा ही लगा था ।

क्या सचमुच ऐसा ही है ?

मेरा जन्हा क्या उतना ही रोशन है जितना किसी शिवालय के पुजारी का ?

हम आधुनिक दिल्ली में रहते हैं छोटे -बड़े ऊँचे- निचे होने का एहसास शायद यंहा दिल में छिपी मोटी दीवारों के पीछे दिखाई भी नहीं देता है मानो हर इंसान में एक विलेन ने हीरो का रूप धर सामजिक मंच पर महान कैरेक्टर को रचने का बीड़ा सा उठा लिया हो लेकिन हकीकत की जमीन पर उगे जात के घाव को मोका मिलते hi ऐसे लोग सबसे पहले कुरेदते हैं ।
जो लोग जात ki दीवार को मानसिक पिछडापन मानाते और हुंकारते फिरते हैं असल में वो लोग स्वर्ण उदारीकरण का महज स्वांग रचाए बेठे हैं और मोका मिलते हर उस एक का gala दबाने के लिए तयार हैं जो जरा भी ऊँची जात की बराबरी करने या समानता का सपना देखने की भूल भी करता है।

असलियत में हम सभी दिखावा करते हैं की घ्रणित मानसिकता से बहार आ गए हैं मगर अंदर छिपी अजीब सी घिनोनी विचारधारा को दबा के रखते हैं ।

ऊँची जात की लड़की का लगन जात के पायदान के निचले हिस्से में रहने वाले दलित से आज भी नहीं होता क्योंकि जात की लात बीच में फंस जाती है । मुख्धारा से जोड़ने के तमाम यत्न के दावे ठोकती सरकार क्या किसी लाचार की आबरू जो को सवर्णों के हाथो से तार- तार होती आ रही है बचा पाई है ?
ये लड़ाई है अपने अधिकारों की , अपने सम्मान की , बराबरी का दर्जा पाने की , हक की , हजारो सालो से आत्मा में चुभते आ रहे शूलों को उखाड़ फैंकने की ।

नहीं जानते सम्मान पाने के लिए और कितना अपमान सहना पड़ेगा मगर पूरी वेवस्था पर सवालिया निशाँ लग गया है जवाब मिलना बाकी है ।



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