रविवार, 31 जनवरी 2010

जिंदा गए थे लोटे चार कंधो पर........


ये अचानक है या सोची समझी साजिश का परिचय मुझे समझ में नहीं आता। कल तक अपनों (मुंबई राज का आतंक ) की बदसलूकी से नाराज थे और आज विदेशियों की।

रंजोध सिंह, नितिन गर्ग जेसे कई भारतीय स्टुडेंट जो लगातार औस्त्रिलियाई बर्बरता का शिकार हुए हमे क्या सन्देश देते हैं ?

कसूर उस हिंसा का है या जिसे हम जेसे इंडियन स्टुडेंट विदेश में झेल रहे हैं या कसूरवार हिंसा के पीछे छिपी वो परक्रिया है जिसे हम देख नहीं पा रहे हैं।

ज्यादा जिम्मेदार कौन हैं वो ऑस्ट्रलियन जो वैश्विक मंदी के चलते रोजाना अपनी जॉब जाने के डरसे बौखलाए हुए मारकाट पर उतर चुके हैं या अपनी मौत के कारण हम खुद ही हैं?


ज्यादातर भारतीय छात्र औस्ट्रलियां , अमेरिका , ब्रिटेन जाते तो पढाई करने के बहाने से हैं मगर ग्रीन कार्ड बनाने के लालच में पढाई chod वे सस्तइ मजदूरी में भी वो सब काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं jiske की लिए वंहा के मूल नागरिक ज्यादा या एक स्तर की सलेरी लेते हैं। ये कोई नई बात नहीं है कुछ वेसा ही जेसा की हम नेपाल से भारत आये उन तमाम नेपालियों को गाली देते हैं जो भारतियों की तुलना में कम मजदूरी में सारे काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं जिन कामो के लिए भारतीय मजदूर ज्यादा मजदूरी की उम्मीद करता है।

दूसरा कारण भारत की लगातार बढती आबादी भी है क्योंकि हमारे पास जितने कमाऊ हाथ हैं उतने काम नहीं, मजबूरन विदेश का रूख कर जल्दी अमीर बन्ने का ख्वाब विदेशी बदसलूकी का एक कारण है ।


भारतीय शिक्षा मंत्रालय हो या विदेश मंत्रालय महज नसीहतों की जमा पूँजी के कुछ और नहीं लुटाता है उनसे कुछ मदद पाने की उम्मीद तो अब बैमानी लगती है।


ये फैसला हमें खुद करना होगा की हम अगर पढाई के लिए कंही जाये तो शिक्षा पाकर स्वदेश लौटे और यंहा आकर देश के निर्माण में भागिदार बने, रोजगार की समस्या है तो हम व्यक्तिगत स्तर पर रोजगार सर्जन कर कुछ बेरोजगार हाथों को काम दें या देश की सम्प्रुभुता और अपने मान सम्मान को विदेशी हाथो में तार तार करके महज तमाशबीन बन खड़े रहे । फैसला आपका है जी ।

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